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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्ष आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

न꣢व꣣ यो꣡ न꣢व꣣तिं꣡ पुरो꣢꣯ बि꣣भे꣡द꣢ बा꣣꣬ह्वो꣢꣯जसा । अ꣡हिं꣢ च वृत्र꣣हा꣡व꣢धीत् ॥१४५१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा । अहिं च वृत्रहावधीत् ॥१४५१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न꣡व꣢꣯ । यः । न꣣व꣢तिम् । पु꣡रः꣢꣯ । बि꣣भे꣡द꣢ । बा꣣ह्वो꣢जसा । बा꣣हु꣢ । ओ꣣जसा । अ꣡हि꣢꣯म् । च । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । अ꣣वधीत् ॥१४५१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1451 | (कौथोम) 6 » 3 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 13 » 2 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में राजा वा सेनापति की शूरता का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) जो वीर (बाह्वोजसा) बाहुबल से (नव नवतिं पुरः) नव्वे-नव्वे शत्रु योद्धाओं के नौ व्यूहों को (बिभेद) तोड़ देता है और जो (वृत्रहा) शत्रुहन्ता वीर (अहिं च) मार-काट करनेवाले शत्रुदल को भी (अवधीत्) विध्वस्त कर देता है, वही राजा वा सेनापति बनने योग्य है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

उसी मनुष्य को राजा के पद पर वा सेनापति के पद पर अभिषिक्त करना चाहिए, जो अकेला होता हुआ भी बहुत से शत्रुओं के छक्के छुड़ा सके ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ नृपतेः सेनापतेर्वा शौर्यं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) यो वीरः (बाह्वोजसा) भुजबलेन (नव नवतिं पुरः) नवतिनवतिशत्रुयोद्धॄणां नव व्यूहान् (बिभेद) भिनत्ति, यः (वृत्रहा) वृत्रहा शत्रुहन्ता वीरः (अहिं च) आहन्तारं शत्रुदलं चापि (अवधीत्) निहन्ति, स एव राजा सेनापतिर्वा भवितुमर्हति ॥२॥

भावार्थभाषाः -

स एव जनो राजपदे सेनापतिपदे वाऽभिषेच्यो य एकोऽपि सन् बहूनपि शत्रून् पराजेतुं समर्थो भवेत् ॥२॥